उज्जैन । मालवा में एक कहावत है कि जब कोई व्यक्ति हर कार्य में निपुण हो जाता है तो उसके बारे में कहा जाता है कि अब ये 'कलदार' बन गया है। इसे कहीं भी भेज दो, चलेगा ही चलेगा। 'कलदार' का मतलब होता है सिक्का। ये कहावत इसलिये है क्योंकि यदि हम इतिहास को खंगालें तो पुराने समय में किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में सिक्कों का बड़ा योगदान होता था। रोजमर्रा के छोटे-मोटे लेन-देन से लेकर बड़े स्तर पर होने वाले अन्तर्देशीय व्यापार में सिक्के ही चला करते थे।
किसी भी राज्य अथवा देश के उत्थान और पतन की कहानी बयां करते हैं सिक्के। इन सिक्कों में हमारे गौरवशाली इतिहास की कई गाथाएं चित्रों के माध्यम से अंकित की गई हैं। ऐसे ही अनगिनत विभिन्न आकार-प्रकार और कालों के सिक्कों का संग्रह है उज्जैन से तकरीबन 35 किलो मीटर दूर महिदपुर के अश्विनी शोध संस्थान में। इस संस्थान के निदेशक श्री आरसी ठाकुर द्वारा पिछले 30 सालों से निरन्तर अखिल भारतीय कालिदास समारोह के दौरान कालिदास अकादमी में सिक्कों की प्रदर्शनी लगाई जा रही है।
लगभग 40 साल पहले महिदपुर में बनाये गये अश्विनी शोध संस्थान में 2600 साल पुराने सिक्के भी संग्रहित किये गये हैं। इनमें कुछ सिक्के मूंग की दाल के दाने के बराबर छोटे हैं तो कुछ कटोरी जितने आकार के 20 ग्राम वजनी हैं। इस बार समारोह में लगाई गई प्रदर्शनी के दौरान जब श्री आरसी ठाकुर से बातचीत की तो उन्होंने सिक्कों के बारे में कई रोचक जानकारियां साझा की।
बचपन से था सिक्कों के प्रति लगाव
श्री ठाकुर बताते हैं कि उनके पिताजी घर में कोई भी शुभ अवसर के दौरान घर के एक ड्रम में पुराने सिक्के डालते रहते थे। इस तरह विभिन्न प्रकार के सिक्के संग्रहित करने के प्रति बचपन से ही श्री ठाकुर का लगाव हो गया था। हमारे देश के इतिहास में कई राजाओं, सम्राटों और बादशाहों के राज का विवरण मिलता है। कई शासकों ने अपने शासनकाल में सिक्के जारी किये। हर नया राजा पिछले राजा के द्वारा जारी किये गये सिक्कों को नकारकर नये सिक्के प्रचलन में लाता था। इस वजह से सिक्कों के इतिहास में बहुत मिलावट हुई। उस समय के लेखक भी अक्सर तत्कालीन राजाओं से प्रभावित होकर लेखन का कार्य करते थे।
किसी भी राज्य के नवनिर्माण, उस दौर में हुए उल्लेखनीय कार्य, उस समय पूजे जाने वाले देवी-देवता, राज्य के उत्थान और पतन की कथा चित्रों के माध्यम से सिक्कों पर अंकित की जाती थी। सिक्कों पर राज्य के चिन्ह और तत्कालीन शासक के नाम भी अंकित किये जाते थे। इस तरह प्राचीन समय में सिक्के संचार का एक सशक्त माध्यम बने।
अकेले चले और फिर काफिला बनता गया
श्री ठाकुर कहते हैं कि जब उन्होंने ऐतिहासिक सिक्कों के संग्रहण के उद्देश्य से अश्विनी शोध संस्थान का निर्माण किया तब सिक्कों के संग्रहण की राह इतनी आसान नहीं थी। उस समय श्री ठाकुर कई मुद्रा शास्त्रियों के सम्पर्क में आये। प्रो.डॉ.जगन्नाथ दुबे और डॉ.विष्णु श्रीधर वाकणकर को उन्होंने अपने संस्थान में सिक्कों का संग्रहण दिखाया। इसे देखकर डॉ.वाकणकर ने कहा था कि इन सिक्कों से अवन्तिका और देश का इतिहास बदल जायेगा। इससे श्री ठाकुर को प्रेरणा मिली और उनके मन में सिक्कों के संग्रहण की भावना और बलवती होती चली गई। उस समय सिक्कों का शोध और संग्रहण उनके लिये एक जुनून बन गया था। ये सिक्के अधिकतर अवन्तिका और उसके आसपास के क्षेत्र से खुदाई के दौरान पाये गये।
श्री ठाकुर ने नदी से सिक्के निकालने वालों से भी सम्पर्क किया। वे लोग इन सिक्कों को गला देते थे या कहीं और बेच देते थे। श्री ठाकुर ने उनसे सिक्के खरीदना शुरू किये और उन पर शोध शुरू किया। सिक्कों का काल (समय) पता करने के लिये विभिन्न ग्रंथों, शोधपत्रों और कार्बन डेटिंग तकनीक का प्रयोग किया गया। इसके बाद कई छात्रों के द्वारा उनके संस्थान से सिक्कों पर पीएचडी कराई गई। अब तो देश-विदेश से सिक्कों पर अध्ययन करने वाले छात्र उनके संस्थान में आते हैं।
श्री ठाकुर कहते हैं कि अब तो उन्हें सिक्कों का इतना अनुभव हो चुका है कि हथेली पर रखते ही सिक्के की पूरी जानकारी बता सकते हैं। वर्तमान में अश्विनी शोध संस्थान में तीन लाख से अधिक सिक्कों का संग्रहण है। इनमें चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार, नन्द शासक और सम्राट अशोक के समय के सिक्के भी हैं। सम्राट अशोक जब अवन्तिका के राज्यपाल बने, तो उन्होंने उस समय सिक्कों पर अशोक ब्राह्मी लिपि में अवन्तिका का नाम अंकित कराया था। इन सिक्कों में शिप्रा नदी, देवी पार्वती का हाथ और सत्ता का प्रतीक हाथी भी अंकित किया गया है।
श्री ठाकुर देश के विभिन्न शहरों में सिक्कों की प्रदर्शनी लगा चुके हैं। मध्य प्रदेश शासन द्वारा हर वर्ष भोपाल में उन्हें प्रदर्शनी लगाने के लिये आमंत्रित किया जाता है। सिक्कों की पहचान करने और खुदाई में पुरातत्व विभाग का विशेष सहयोग रहता है। विभाग द्वारा ही सिक्कों की प्रदर्शनी भी समय-समय पर लगाई जाती है। श्री ठाकुर बताते हैं कि ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के सिक्कों में सम्राट विक्रमादित्य का विवरण भी मिलता है, जिससे यह साबित हो चुका है कि सम्राट विक्रमादित्य काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तव में अवन्तिका के राजा थे। इस सम्बन्ध में एक शोधपत्र का प्रकाशन भी किया जा चुका है।
विक्रमादित्य के बाद उनके नाम की उपाधि कई राजाओं ने अपने नाम के साथ लगाई। उस समय सिक्के बनाने में चांदी, तांबा, सीसा, पीतल और सोने का प्रयोग किया जाता था। पाणिनी और चाणक्य के समय लिखे गये ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि उस समय सिक्कों को बनाने के लिये विभिन्न धातुओं को गर्म किया जाता था, फिर उनकी एक चादर बनाई जाती थी तथा उस पर आहत करके विभिन्न आकार-प्रकार के सिक्के बनाये जाते थे। सिक्कों पर विभिन्न प्रकार के बिंब भी लगाये जाते थे।
शुंग राजाओं के समय ढले हुए सिक्कों का प्रचलन प्रारम्भ हुआ, परन्तु यह कुछ समय तक ही चल सका। इसके बाद पुन: आहत किये हुए सिक्के प्रचलन में आये। परमार राजाओं के समय सिक्के बनाने में चांदी का प्रयोग सर्वाधिक किया जाता था। परमारों के पतन के बाद सिक्कों में 80 प्रतिशत तांबा और 20 प्रतिशत चांदी पाई जाती थी। यदि सिक्के अधिक घीसे हुए पाये जाते थे तो इसका मतलब यह होता था कि उस समय उनका चलन बहुत अधिक होता होगा।
पुष्यमित्र शुंग ने जब अश्वमेध यज्ञ किया तो सिक्कों पर घोड़े का चिन्ह अंकित किया था। श्री ठाकुर ने बताया कि हम सबके लिये यह बहुत गर्व की बात है कि पूरी दुनिया में सिक्कों पर संवत अंकित करने की परम्परा उज्जैन से प्रारम्भ हुई। उज्जैन के बाद ही दुनिया के अन्य देशों में सिक्कों पर सन अंकित करना प्रारम्भ हुआ। सिक्कों पर राजवंशों के प्रतीक चिन्ह अंकित किये जाते थे, ताकि उस समय अनपढ़ व्यक्ति भी ये समझ सके कि यह किस राज्य का है। उस समय एक राज्य के सिक्के दूसरे राज्य में नहीं चलते थे। साथ ही जब एक राजा दूसरे राजा को हराता था तो उसके द्वारा चलाये गये सिक्कों पर पुन: टंकण किया जाता था।
जलाशय को शुद्ध करते थे सिक्के
पहले के समय में सिक्के तांबे के बनाये जाते थे। तांबा की जब पानी से प्रतिक्रिया होती है तो कॉपर सल्फेट नामक रसायन निकलता है, जिससे जल का शुद्धिकरण होता है। इस बात से प्राचीन समय में लोग भलीभांति परिचित थे। इसीलिये जब लोग यात्रा के दौरान किसी नदी, झील अथवा तालाब को पार करते थे तो उनमें सिक्के डाल देते थे, ताकि वहां के आसपास के रहने वाले लोगों को जलाशय से शुद्ध जल मिल सके। आज भी कई लोग इस प्रथा का पालन करते हैं।
पहले भी कायम थी सोने की चमक
श्री ठाकुर बताते हैं कि भारतीय संस्कृति में शुरू से आमजन और प्रशासकों का सोने के प्रति गहरा लगाव रहा है। उस समय भी सोना सबसे कीमती धातु मानी जाती थी। सोने का भाव चांदी से 14 गुना महंगा था। एक सोने के सिक्के के लिये 14 चांदी के सिक्के चुकाने पड़ते थे।
सिक्के बनाने के लिये धातुओं का खनन और शुद्धिकरण प्राचीन समय से चला आ रहा है। खुदाई में धातुओं के खनन और शुद्धिकरण के उपयोग में आने वाले कई उपकरण मिले हैं। उस समय सिक्कों के मूल्य निर्धारण के लिये अलग-अलग इकाईयां होती थी। कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा सबसे पहले 'रूपये' शब्द का प्रयोग सिक्कों पर किया गया था।
हर सिक्के के पीछे है कहानी
हर सिक्के के निर्माण से कई रोचक और अनोखी कहानियां जुड़ी हैं। अंग्रेजों के शासन के दौरान उन्होंने लॉर्ड एडवर्ड के चित्र का सिक्का निकाला था। लॉर्ड एडवर्ड गंजा था। ये सिक्का जब प्रचलन में आया तो उस समय इंगलैण्ड के अखबार 'लंडन टाईम्स' में लिखा गया था कि इस सिक्के को चलाना अंग्रेजों की राजकीय भूल है। भारत में भी स्थानीय लोगों ने यह सिक्का बाजार में चलाने से मना कर दिया था, क्योंकि उस समय यह मान्यता थी कि राजा को बिना सिर ढंके किसी के सामने नहीं आना चाहिये और एडवर्ड के सिर पर कोई पगड़ी या टोपी नहीं थी। अंग्रेजों को अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने इसके बाद जॉर्ज पंचम के चित्र का सिक्का निकाला, जिसमें जॉर्ज को एक ताज पहनाया गया था और उनकी पोषाक को अलंकृत भी किया था।
जो सिक्के अंग्रेजों ने वापस ले लिये थे, वे अत्यन्त दुर्लभ हैं, परन्तु हर्ष की बात यह है कि अश्विनी शोध संस्थान में ये दुर्लभ सिक्के भी संग्रहित किये गये हैं। वर्तमान में इस एक सिक्के की कीमत पांच लाख रुपये है। आज से तकरीबन 1200 साल पहले पूरे देश में सिक्कों पर हिन्दी भाषा में लिखा जाता था। यहां तक कि दक्षिण, पूर्वोत्तर और बंगाल क्षेत्र के राजा भी अपने सिक्कों पर हिन्दी में जानकारी अंकित करते थे। सातवाहन राजाओं ने अपने सिक्कों पर हिन्दी और तेलुगु दोनों भाषाओं का प्रयोग किया। ये समस्त प्रकार के सिक्के अश्विनी शोध संस्थान में मौजूद हैं। इन्हें देखकर आश्चर्य भी होता है और गौरव भी।
उज्जैन के अश्विनी शोध संस्थान में मौजूद हैं 2600 साल पुराने सिक्के