उज्जैन के कागदीपुरा में भारत के सर्वश्रेष्ठ कागज तैयार होते थे -डॉ.ठाकुर


 
उज्जैन । सुमेर, मिस्र और सिंधु सभ्यता की लिपि से प्रारम्भ कर भारतीय लिपियां प्रकाश में आईं। इनमें ईरानियों की लिपि, रोमन लिपि, यमन लिपि, खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपि प्रमुख थी। साथ ही चित्रलिपि, भाव चित्र लिपि और संवत लिपि के विस्तार में वसुधैव कुटुम्बकम के भाव निहित थे।
 उक्त बात महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ स्वराज संस्थान संचालनालय, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति विभाग, सिंधिया प्राच्य शोध संस्थान विक्रम विश्वविद्यालय एवं अश्विनी शोध संस्थान महिदपुर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यशाला में अपना व्याख्यान देते हुए पुरातत्वविद डॉ.जगन्नाथ दुबे ने कही। यह कार्यशाला विक्रम कीर्ति मन्दिर के कालिदास सभागृह में आयोजित की गई।
 शासकीय केपी महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ.एसएल वरे ने मध्यकालीन लिपियों की जानकारी प्रदान करते हुए मालवा क्षेत्र की देवनागरी, फारसी, अरबी और इन्हें लिखने वाली भाषाओं में हिन्दी और उर्दू का वर्णन किया। डॉ.वरे ने मालवी, निर्माण सोंधवाणी, बुंदेली, बघेली आदि बोलियों से लिपि की उत्पत्ति के महत्व और क्षेत्रीय इतिहास के बारे में बताया।
 त्रिवेणी संग्रहालय के श्री राहुल सांखला ने संग्रहालय के शैव, वैष्णव और शाक्त पुरावशेषों पर चर्चा की। उन्होंने तीनों सम्प्रदायों की मूर्तियों और मूर्तिकला पर विस्तार से बताया तथा मध्य प्रदेश के विभिन्न संग्रहालयों से आई प्रतिमाओं के विज्ञान एवं कला तत्व की व्याख्या की।
 अश्विनी शोध संस्थान के निदेशक डॉ.आरसी ठाकुर ने 1857 की क्रान्ति में महिदपुर के महत्व को सदाशिव राव का स्मरण करते हुए रियासतों के सिक्कों और उन पर अंकित लिपियों की जानकारी दी। डॉ.ठाकुर ने कागज पर लिपि के छपने की कला को बताते हुए कहा कि भारत में बहिखाते के श्रेष्ठ कागज उज्जैन के कागदीपुरा में तैयार होते थे और लिपि का लेखन उज्जैन के आलपुरा में होता था।
 डॉ.जीवनसिंह ठाकुर ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि इतिहास और लिपि में छिपे हुए इतिहास को निकालना और उसके गुण-रहस्यों को समझने की कला ही वास्तविक इतिहास है। कार्यक्रम का संचालन डॉ.मुकेश कुमार शाह ने किया। स्वागत भाषण डॉ.प्रकाशेन्द्र माथुर, निदेशक महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ ने दिया। आभार प्रदर्शन डॉ.रमण सोलंकी ने किया।


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