और ऐसे,,,,,,बिगड़ैल घोड़े को धन की घास डालकर क़ाबू किया,,,,,,,,,चेरिटी को चार करोड़ प्रतिमाह!

चेरिटी के नाम पर कलंक चेरिटेबल अस्पताल और उसके मुख्य प्रकल्प मेडिकल कॉलेज के कर्त्ताधर्ताओं के काले पतित चेहरों से बीते दो दिनों में जो नक़ाब उतरा है उससे सूबे के मुखिया शिवराजसिंह चौहान और कोरोना को काबू करने में जी-जान से जुटी प्रशासनिक टीम भी स्तब्ध हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि चाटुकारों की नज़र में 'महान' इन सेवाभावियों की 'मुँह दिखाई' को मुख्यमंत्री ने कुछ उसी तरह लिया हो जिस तरह कुछ साल पहले तत्कालीन वित्त मंत्री राघवजी की अप्राकृतिक कृत्य वाली सीडी देख महसूस किया था! फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि उस मामले में राघवजी संगठन और सरकार से तत्काल बर्खास्त कर दिए गए थे मगर उज्जैन के मामले में कॉलेज के कर्त्ताधर्ता हालात की नज़ाकत के चलते 'शिव' के तीसरे नेत्र की अग्नि-ज्वाल से फ़िलहाल अदग्ध बच निकले हैं।


आपको पता होना चाहिए कि पूरे एक महीने कोरोना के ख़िलाफ़ जंग में मेडिकल कॉलेज का संचालक मंडल क्यों जानबूझकर निठल्ला और नाकारा बना रहा? कॉलेज प्रबंधन की पहले और दूसरे नम्बर की लीडरशिप क्वेरेंटाइन के बहाने शहर के सबसे मुश्किल भरे दिनों में क्यों घरों में जा दुबकी? संचालक एक महीने तक प्रशासन को क्यों बरगलाते रहे और किसलिए इलाज़ में आनाकानी, अनदेखी और अनसुनी कर मरीज़ों को मरते देखकर भी टस से मस नहीं हुए? यह भी कि ऐसा क्या चमत्कार हुआ जो पूरी तरह ठप हुई बदइंतज़ामी की ट्रेन दो दिन में अचानक पटरी पर आकर सरपट दौड़ने लगी?


परदे के पीछे इस डैमेज़ कंट्रोल से जुड़े लोगों से बात करने पर मुझे पता चला कि सारा झगड़ा धन का था। अपने कॉलेज को रेड अस्पताल बनाए जाने पर संचालक पहले ही दिन से राज़ी न थे। प्रशासन के पास दूसरा विकल्प न होने के कारण जब संचालकों के न चाहते हुए भी मेडिकल कॉलेज को कोरोना से संक्रमितों के इलाज़ की जिम्मेदारी दे दी गई तो मुख्य कर्त्ताधर्ता क्वेरेंटाइन की आड़ में कोपभवन में जा बैठे। प्रशासन पर सत्ता पक्ष के ही स्थानीय लोगों का इतना दबाव था कि न तो ग्रीन अस्पताल में अपने पॉजिटिव भतीजे का एक्सरे कराने के जिम्मेदार से जवाब तलब किया गया, न ही प्रशासनिक निर्देशों की अवहेलना पर कॉलेज प्रबंधन को नोटिस तक दिया जा सका।


जब पानी सिर से ऊपर होने लगा और बढ़ती मौतों के बीच मनमानियों की सैकड़ों शिकायतें भोपाल पहुँची तब मुख्यमंत्री ने ख़ुद कमान संभाली। सुना है कि शासन की ओर से जब प्रबंधन से बात की गई तब भी संचालक घुन्ने ही बने रहे। न उन्हें संकट की घड़ी में सेवा के संकल्प याद रहे, न शासन-प्रशासन के दण्ड का भय अनुभव हुआ। यहाँ तक कि 'विनय न मानत जलधि जड़' की मुद्रा में दिया गया कलेक्टर का नोटिस भी उन्होंने घर पर पड़े-पड़े पिछवाड़ा पोंछकर फेंक दिया। आख़िरकार मुख्य सचिव ने दो अफ़सरों की टीम को उज्जैन भेजा और साम, दाम, दण्ड, भेद के सारे उपाय अपना कर बिगड़ैल घोड़े को धन की घास डालकर क़ाबू किया जा सका!


झगड़े की जड़ धन थी और ज़िद की वज़ह वह बदनीयत जिसमें आकण्ठ डूबा संचालक मंडल महासंकट की घड़ी में भी सरकारी ख़ज़ाने से ज़्यादा से ज़्यादा धन हथियाने का मंसूबा पाले हुए था। इलाज़ में कोताही से सरकार और संस्था की बढ़ती बदनामी के बावज़ूद बेपरवाह प्रबंधन सेल्फ़ क्वेरेंटाइन की फ़ुरसत में सौदेबाज़ी की शर्तों का पुलिंदा तैयार करने में जुटा था। ध्यान रहे कि देश भर में कोरोना मरीज़ों के लिए 'रेड' घोषित किए गए सभी निजी अस्पतालों को सरकार इलाज़ के बदले तय राशि दे रही है मगर मेडिकल कॉलेज प्रबंधन अपनी कतिपय शर्तों पर इस क़दर अड़ा रहा कि उन्हें मनवाने के लिए उसने हर हथकण्डा आजमाने में शर्म न की। जैसी कि ख़बर है अब सरकार ने अगले तीन माह तक प्रति माह मेडिकल कॉलेज को क़रीब चार करोड़ रुपए के भुगतान का वादा किया है। तब जाकर प्रबंधन की तृष्णा को विराम लगा और सारी लीडरशिप पेट भरते ही सेवा के भजन गाने लगी। 


पता नहीं इलाज़ के बदले इतनी मोटी रकम शासन से मिलने की ख़बर पर हिंदी मीडिया के मित्रों का ध्यान क्यों नहीं गया? क्यों भोपाल से आई टीम और मेडिकल कॉलेज के बीच अर्थ-सन्धि का समाचार कोरोना के हेल्थ बुलेटिन के आँकड़ों में खो गया, मगर ये हुआ तो है। मंगलवार को अंग्रेजी अख़बार फ्री प्रेस में अग्रज निरूक्त भार्गव ने जरूर इसकी पड़ताल कर चार करोड़ के मासिक भुगतान का ख़ुलासा किया है। आज यह ख़बर तो है कि एक महीने से प्रबंधन की शह या संक्रमण के डर से गायब हुआ कॉलेज का मेडिकल स्टॉफ एस्मा के तहत जेल भेजे जाने की धमकी के बाद लौट आया है, मगर यह सूचना आज भी नदारद है कि मंगलवार को महाडिक नाम की एक मूर्ति को अनुकूल करने में प्रशासनिक अधिकारियों को कितनी धूनी रमानी पड़ी! 


उज्जैन वालों! देख लीजिए, ये हैं हमारे सेवाभावी लोग। किसी घोर प्रायवेट अस्पताल में किसी प्रबंधन ने ऐसा आचरण किया होता तो प्रशासन न जाने कितनी रस्सियों से उसकी नकेल कस देता मगर जो चेरिटी की थाली पीट-पीटकर दान की दौलत से खड़े हुए हैं, उन ट्रस्ट वाले अस्पतालों का यह व्यवहार वैसी ही जुगुप्सा भर रहा है जैसी राघवजी की काम-लीला को देखकर हुई थी।


आज जब साबित हो गया है कि सरकार इलाज के लिए मेडिकल कॉलेज को मोटी रकम देने जा रही है तब इलाज़ में कोताही के लिए भी प्रबंधन की जिम्मेदारी तय की जाना चाहिए। क्यों न शासन उन दिवंगतों के परिजनों को इसका हक़ दे कि बेपरवाही के कारण हुई अपनों की मौत का हर्ज़ाना भी इस अस्पताल से वसूला जाए? जो लोग पूरी बेशर्मी और बेरहमी के साथ लाशों पर लोभ की रोटी सेंकने में न लजाए हो, उनकी लापरवाही से उठी हरेक अर्थी का मुआवजा पीड़ितों को नहीं मिलता तो यही माना जाएगा कि राजदण्ड केवल मदारी की छड़ी जैसा है, जो बेलगाम बंदरिया को नचा तो सकता है लेकिन उसे स्थायी सबक सिखाने में समर्थ नहीं है। 


क्या कहूँ! जब दान पेटियों में चढ़ावा बरसने लगता है तब सरकारें सार्वजनिक मंदिरों का अधिग्रहण कर उन्हें सरकारी घोषित कर देती है। साल 1978 में महाकाल मंदिर का सरकारीकरण सुना था और 15 बरस पहले अलखधाम नगर में सांई बाबा के मंदिर का सरकारीकरण अपनी आँखों देखा था, मगर अफ़सोस ऐसा कोई कानून नहीं है जिसके बूते कोरोना जैसे कठिन काल में किसी लुटेरे ट्रस्ट की आड़ में चलाए जाने वाले सार्वजनिक ( निजी नहीं ) अस्पताल को अधिग्रहित किया जा सकें! उम्मीद की जाना चाहिए कि ऐसे कटु अनुभवों से सबक लेकर सरकारें कुछ करने का सोचेगी जरूर!


#vivekchaurasiya की फेसबुक वॉल से साभार।   (  श्री विवेक चौरसिया देश के जाने-माने पत्रकार और चिंतक है )                                 दैनिक मालव क्रांति ने भी इस समाचार को प्रमुखता से अपने पोर्टल पर प्रकाशित किया था


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