सिख विरोधी दंगों के दौरान लागू मार्शल्ला के बीच रिपोर्टिंग करना भी उतना चुनौतीपूर्ण नहीं था जितना कि इस ‘मिस्टर अनविजिबल’ के कारनामों का सामना खौफ पैदा करने वाला है


रिपोर्टिंग तो मार्शल्ला में भी कि लेकिन ऐसा कर्फ्यू नहीं देखा! 


🔹कीर्ति राणा/89897-89896
जो विधिवत डिग्रीधारी पत्रकार हैं उनके और जो मेरी तरह बिना डिग्री-डिप्लोमा के दशकों से इस पेशे में जमेहुए हैं उन सबके लिए भी खौफनाक कोरोना के कारनामों की रिपोर्टिंग का यह पहला अनुभव है।जो पांच छहदशक से पत्रकारिता में नाम जितनी पहचान पा सके हैं वो सब और अभी जो युवा पत्रकार फील्ड में रात-दिनएक किए हुए हैं  उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि बिना दंगे फसाद वाला ऐसा कर्फ्यू लगेगा।जिसमें नादुकानें जलेंगी न जय जय सियाराम के उदघोष गूंजेंगे, न ही पथराव, चाकू छूरे चलेंगे फिर भी गलियों से चौराहेतक नहीं पूरे देश में सन्नाटा रहेगा। 
हर खबर को ब्रेकिंग न्यूज बनाने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया को तो कुछ साल ही हुए हैं।सोशल मीडिया नहीं थातब भी अफवाहें खूब दौड़ती थी मंदिर-मंदिर मूर्तियां दूध पीती थीं, अब वह सारा काम कट, कॉपी, पेस्ट औरफारवर्ड से हो रहा है।इन दोनों मीडिया  की बनिस्बत पीढ़ियों पहले से जमीनी पत्रकारिता की जड़ें मजबूत हैं।आजादी आंदोलन हो या उसके बाद प्रधानमंत्री की रैली, चुनावी सभा, बाढ़, भूकंप, अकाल, अग्निकांड, रेल-बस हादसा, मेले में भगदड़, बारह साल में आने वाले सिंहस्थ, अर्द्ध कुंभ, संत सम्मेलन, शिखर वार्ता से लेकरवॉर रिपोर्टिंग, क्षेत्रीय जातिवादी सम्मेलन, धार्मिक महोत्सव-रथयात्रा, लोकसभा-विधानसभा चुनाव, सांप्रदायिक दंगे, बाबरी मस्जिद ध्वंस कांड आदि  का कवरेज तो पिछले सात-आठ दशक में लगभग फील्डरिपोर्टरों ने ही किया है। सदियों से जिस पत्रकारिता की धाक रही है उसने भी इससे पहले प्लेग बीमारी का हीचेहरा देखा था, लेकिन ये कोरोना या तो मिस्टर इंडिया की तरह अदृश्य है या शरद जोशी के अंधों का हाथीजैसा है।ये ‘मिस्टर अनविजीबल’ कब, किस पर, कैसे हमला कर दे कुछ पता ही नहीं चलता।
सांप्रदायिक दंगों के दौरान पथराव, आगजनी, पेट्रोल बम, चाकू-तलवार  के साथ एक दूसरे वर्ग को निपटानेवाले उन्मादियों पर काबू पाना पुलिस, अर्द्ध सैनिक बलों के लिए भी मुश्किल नहीं रहता। 1984 के सिखविरोधी दंगों और लागू किए मार्शल्ला के बीच रिपोर्टिंग करना भी उतना चुनौतीपूर्ण नहीं था जितना कि इस‘मिस्टर अनविजिबल’ के कारनामों का सामना खौफ पैदा करने वाला है। आगरा के पत्रकार पंकज कुलश्रेष्ठके साथियों और परिजनों ने भी कहां सोचा था कि अदृश्य दुश्मन कोरोना उन पर इस तरह जानलेवा हमलाकरेगा। 
कर्फ्यू तो उन सारे दंगों के दौरान भी लगते रहे लेकिन ये कर्फ्यू भी अलग है। दंगों के दौरान हफ्तों  लगे रहनेवाले कर्फ्यू के वक्त भी शाम को मोहल्लों में पासपड़ोस के परिवार इकट्ठा हो जाते थे, ताश पत्तों की बाजी केसाथ सेंव परमल का दौर तो कभी अंताक्षरी भी चलती रहती थी।गलियों-चौराहों पर तैनात पुलिसकर्मियों केचाय-नाश्ते की चिंता भी पूरा मोहल्ला ही करता था।कोरोना वाले कर्फ्यू ने तो वो सारे रिश्ते-प्रेमभाव भी खत्मकर दिए। सटे हुए दो घरों की खिड़की खुले और हाय हलो के बीच खांसी का ठसका या छींक भी आ जाए तोदूसरे घर की खिड़की फटाक से बंद हो जाती है।उस जमाने के कर्फ्यू में कम से कम आत्मीयता तो रहती थी, इस कर्फ्यू ने तो अमानवीय और हददर्जे का स्वार्थी बना डाला है।कोरोना का शिकार होने वालों में चाहे सामान्यव्यक्ति हो या धन्ना सेठ चार कंधे मिलना तो ठीक फूल माला, बैंडबाजे तक नसीब नहीं हो रहे हैं।शवयात्रा हीनहीं निकली ढंग से तो उठावना और श्रद्धांजलि सभा भी क्यों हो।इस कोरोना ने कितना मोहताज कर दिया हैकि पीड़ित के कंधे पर सांत्वना का हाथ तक रखने नहीं जा सकते, मोबाइल ही आंसू पोंछने के लिए रुमाल कीतरह काम आ रहा है।रामजी ने तो 14 साल के वनवास को राक्षसों से युद्ध करते हुए काट लिया था, सोच करतो देखिए कभी ये मोबाइल, नेट, टीवी, यू ट्यूब, इंस्टा, फेसबुक आदि साधन न होते तो कैसे कटता उम्र से लंबाये कोरोना कारावास। 
सांप्रदायिक तनाव वाले उस कर्फ्यू में रिपोर्टिंग करते हुए चाय-नाश्ते-खाने की चिंता फिर भी नहीं रहती थी।चाय किसी दोस्त के घर तो नाश्ता उस क्षेत्र वाले टीआई-सीएसपी के साथ हो जाता था।इस कर्फ्यू में तो घर सेही मुंह बांध कर निकलना है।पेशागत होड़ वैसी ही है कि सबसे पहले खबर, विजुअल और बाइट मुझे मिले।उस कर्फ्यू में तो एक डायरी, पेन से ही जंग जीत लेते थे लेकिन अब चश्मा, ग्लव्ज, मॉस्क, सेनेटाइजर के साथपीपीइ किट के साथ बाइक पर सिंगल सवारी अनिवार्य सी हो गई है।जो डॉक्टर, स्वास्थ्य और पुलिसकर्मीघंटों यह एयरटाइट रक्षाकवच (पीपीइ किट) पहने रहते हैं उन पर दया आती है।इंदौर में 42, खरगोन, झाबुआ, खंडवा जैसे गर्म जिलों में 45-50 डिग्री तापमान में इसे पहने रहना कितना कष्टप्रद रहता होगा।पहले वालेकर्फ्यू-दंगों की रिपोर्टिंग करते वक्त यह सुकून भी रहता था कि घायल हुए या जनहानि के आंकडों में नाम दर्जहो गया तो परिवार को दो-पांच लाख तो मिल ही जाएंगे। कोरोना के इस रिपोर्टिंग काल में हरियाली वालीरिपोर्टिंग की अपेक्षा रखने वाली राज्य सरकारों को अब तक यह नहीं लगा है कि उनके विभागों के मैदानीकर्मचारियों की तरह मीडियाकर्मी भी कोरोना वारियर्स हो सकते हैं। पुलिस, हेल्थ, कारपोरेशन आदि विभागोंके लिए तो फिर भी सरकारी सुविधाओं की छतरियां हैं, परिवार के सदस्य को नौकरी का प्रावधान आदि भी हैलेकिन खुद की मर्जी से प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में आई पत्रकारों की फौज के लिए बस बायलाईनस्टोरी, ब्रेकिंग न्यूज अधिक हुआ तो संस्थान का बधाई पत्र पुलित्जर सम्मान मिलने जैसा है।मुंबई के चार दर्जनसे अधिक मीडियाकर्मी कोरोना की बुरी नजर का शिकार हुए, इंदौर-भोपाल आदि शहरों के पत्रकार भीअस्पताल में दाखिल हुए और स्वस्थ होते ही फिर मोर्चा संभाल लिया उनके लिए न कहीं तालियां बजी और नही पुष्पवर्षा हुई। मान-सम्मान की लालसा से दूर मीडियाकर्मियों की जमात भिड़ी हुई है कोरोना काल कीरिपोर्टिंग वाले समय में अपना इतिहास अपने हाथों लिखने के लिए। 
🔹kirtiranaji@gmail.com
कीर्ति राणा 
‘राज-कीर्ति’ 
389-ए/ए तुलसी नगर 
बेडमिंटन कोर्ट के पीछे 
इंदौर-452-010 (मप्र)


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