मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ।समाज में एक -दूजे के सुख -दुख में सहज सम्मिलित होने की राह में ,संक्रमण की आशंका के तीखे कांटे बिछा दिए हैं कोरोना ने। सुख में तो कोई बात नहीं ........ब्याह शादी, पार्टी...आदि........ . पर........ शोक /दुखद प्रसंग...........अंतिम संस्कार ,उठावना, प्रतिदिन की बैठक, 11वां 12वां ,पगड़ी आदि में जाने का क्या करें??
संकटकाल मे सब छोड़ भी दें, पर कम से कम एक मौके पर .............उठावने........में तो वह उपस्थित होना चाहता है कम समय लगने के कारण। पर जाएं ,न जाएं?के धर्म संकट से घिरे हुए लोग, एक दूसरे के कानों में फुसफुसाते हैं । क्या करें? एक तरफ कोरोना से संक्रमित हो जाने के खतरे की ,भय की, आशंका की गहरी खाई है तो दूसरी तरफ मानवीय सामाजिक धर्म निर्वाह न कर पाने का संकोच, मानसिक असंतोष या कहें अपराध बोध का कुआं । अपने दुख से, शोक से दुखी तो संसार के समस्त प्राणी होते ही है ,पर इन सब में मनुष्य ही ऐसा है जो न केवल दूसरों के दुख से दुखी होता है ,सह-अनुभूति करता है ,वरन् अपनी संवेदना की अभिव्यक्ति भी करता है ,और इसे अपना सामाजिक धर्म मानता है। उठावने में लोगों की बड़ी संख्या में उपस्थिति इसी भाव बोध की परिचायक है ।उठावना मूलतः शोक उठावना का संक्षिप्त रूप है ।शब्दों के फेर से ........शोक निवारण ही है ।जिस का भावार्थ है ...........परिवार का प्राणी तो चला गया। उसका दुख तो जिंदगी भर दिल में रहेगा। पर उसे संयमित कर ...... चल उठ, भाई ....उठ काम धंधे से भी लग .......,जिंदगी चलाने के लिए बेहद जरूरी है ,सारे गाजे-बाजे इसी आर्थिक क्रिया से ही है ।उठावने में....... नगर के, बाहर के समाज जनों की ,रिश्तेदारों की, बंधु बंधुओं की ,परिचितों की उपस्थिति शोकाकुल को हिम्मत देती है ..........मानो कहती है -------जीवन में सक्रिय हो ,हम सब तेरे साथ हैं ।
कहते हैं ना ,आवश्यकता आविष्कार की, खोज की ,नए विचारों की ,नए कार्य व्यवहार के नए रूपों की जननी होती है ,नया रास्ता प्रशस्त करती है ।कोरोना संकट काल में उठावने के नए-नए रूप भी सामने आ रहे हैं जिनमें मूल बिंदु है संक्रमण से बचाव का ,जिंदगी की सुरक्षा का ध्यान।
परंपरागत उठावने का स्वरूप मोटे तौर पर पूरे उत्तर भारत में ........मध्यप्रदेश हो या राजस्थान या अन्य राज्य.... लगभग सभी राज्यों, शहरों में एक सा है। एक निर्धारित समय व स्थान पर सब लोगों का एकत्रित होना ।बैठने के लिए दरियों कुर्सियों का इंतजाम ।श्रद्धांजलि यों का वाचन ।दिवंगत व्यक्तित्व का परिचय मौन श्रद्धांजलि ,शांति पाठ ,दिवंगत के चित्र पर पुष्प अर्पण करते हुए शोकाकुल मुखिया व परिजनों के हाथ जोड़ते हुए संवेदना की अभिव्यक्ति। मोटे तौर पर एक घंटे में सब कुछ संपन्न हो जाने वाला कार्यक्रम।
कोरोना संक्रमण का बहुत खतरा है इस में। पास पास बैठी हुई भीड़ के कारण। घंटे आधे घंटे के साथ के कारण ।परिवार की स्थिति अनुसार उठावने व पार्किंग हेतु बड़ी जगह की आवश्यकता, मौन श्रद्धांजलि में महिलाओं की सहभागिता का अभाव, शक्ति प्रदर्शन का भाव आदि कमियां रही है।
कोरोना नियंत्रण आदेश के प्रभाव से, एक नया रुप चला है। दो घंटे के विस्तार वाला, कभी-कभी सिर्फ 1 घंटे का या कभी 3 घंटे का । यह शोक बैठक केसमान ही है ।इसमें भी दरी कुर्सी आदि बैठने का इंतजाम तो है ,पर समय का फलक लंबा होने से एक ही समय ज्यादा भीड़ व वाहन इकट्ठे नहीं होते। दूर-दूर केवल कुछ समय के लिए बैठे व्यक्ति शोकाकुल से संवेदना व्यक्त करते हैं और चल देते हैं ।इस प्रकार मे परंपरागत की तुलना में कोरोना संक्रमण का खतरा अपेक्षाकृत कम है। साथ ही उठावने व पार्किंग के लिए अपेक्षाकृत छोटी जगह से भी काम चल जाता है। अब इसी रूप वाला उठावना चल रहा है ।पर इसमें भी खतरा पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है।
चलित उठावना........ तीसरा नया रूप है...... उठावने का । इसके भी समाचार महानगरों व अन्य स्थानों से लगातार समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं ।इसमें संवेदना व्यक्त करने आने वाले लोगों के बैठने के लिए न दरियां बिछाई जाती है और ना कुर्सियां ही रखी जाती है ,ताकि संक्रमण से बच सकें।और साथ ही यह भी कि बैठेंगे ही नहीं, ठहरेंगे भी नहीं तो संक्रमित होने का समय भी नहीं होगा। उठावने के इस रूप में शोकाकुल परिवार 8 या 10 फीट दूर से खड़े हुए या बैठे हुए हाथ जोड़ते हुए दो या अधिक घंटे के लिए उपस्थित रहते हैं । लोग शोक संवेदना प्रकट करते हुए चलते चले जाते हैं। तुलनात्मक रूप में यह सबसे ज्यादा सुरक्षित तरीका लगता है ।इस तरीके में आवश्यकता अनुरूप ,जीवन बचाने व आशंकाओं से मुक्ति हेतु और भी परिवर्तन करते हुए इसी रूप का सभी लोगों द्वारा उपयोग में लाना अभी तो श्रेयस्कर लगता है ।
सच तो यही है कि मानव जीवन और स्वास्थ्य दुनिया में बहुत बड़ी चीज है, सर्वोपरि है ।सभी कुछ इनके लिए ही है --चाहे परंपराएं हो या अन्य रीति रिवाज ।इस संदर्भ में लकीर के फकीर होने की बजाय गतिशील होना चाहिए ।समय और आवश्यकता के अनुरूप विचारों और कार्यों दोनों में ।इसी में मानव विकास की कुंजी छिपी है ।
हथेली पर जान लिए ,बिंदास अंदाज और बहादुरी की मुद्रा किसी के लिए भी उचित नहीं है ।न उनके लिए न उनके परिवारों के लिए । प्रशंसनीय बात यह हुई है कि प्रायः समझदार शोकाकुल व्यक्तियों ने खुद आगे बढ़कर अन्य लोगों को इस द्वंद्व से मुक्त कर दिया है कि आपकी सशरीर या व्यक्तिगत उपस्थिति जरूरी नहीं है ।आप घर पर ही रह कर ,अपना व परिवार का बचाव करें ।मोबाइल पर आपके दो शब्द या व्हाट्सएप पर भेजी गई आपकी संवेदना आपकी वर्चुअल /आभासी उपस्थिति के रूप में मान्य है, स्वीकार है ।इसी में मानवता की जय सन्निहित है। (आलेख के लेखक प्रोफेसर श्री शंकर लाल गोयल है ,श्री गोयल जाने-माने चिंतक है, आप नीमच में अग्रवाल समाज के वरिष्ठ,एवम् समाज सेवी भी है)